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लेखा-जोखा / रसूल हम्ज़ातव / सुरेश सलिल
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लम्बी उम्र तुमने जी
और अब भी
सन्तुष्ट अपने सुरक्षित घेरे में ।
बना नहीं पाए ऐसा एक दोस्त भी
छटपटाओ जिसके लिए अकेले में ।
अब जब आए
बुढ़ौती के दिन
लोगों ने मन ही मन अफ़सोस जताया :
’जीआ तो सौ साल
मगर एक भी दिन
ज़िन्दगी का सुफल नहीं कर पाया ।’
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल