दस्तक / गुलशन मधुर
दया मेरा प्रिय भाव नहीं है
क्योंकि वह अपने पात्र को छोटा कर देती है
पर क्या करूं
मुझे तुम पर दया आती है दोस्त
तुम, जो अपनी संकरी सोच की
तंग गली से बाहर निकलना ही नहीं चाहते
नहीं चाहते कि खुली दिशाओं की
आज़ाद हवाएं तुम्हें छू भी जाएं
इतिहास के सबक़ कब से
तुम्हारी याद के दरवाजों पर
दस्तक देते-देते थक गए हैं
नए दौर की रोशनी
तुम्हारी बंद खिडकियों की दरारों से
झांकने की कोशिश में बेहाल है
और तुम हो कि अपना इतिहास
मिथकों के अंधेरों में तलाश कर रहे हो
उन आवाजों की अनसुनी करके
जो कब से तुम्हारी मोहनिद्रा तोड़ने का
जी-तोड़ जतन कर रही हैं
तुम हो कि अपने ही क्लोनों की
समवेत दादुरध्वनि को
मान बैठे हो पुनर्जागरण का शंखनाद
भ्रम में जीने का एक सुख तो है
मानना होगा
पर साथ ही तुम्हें यह भी जानना होगा दोस्त
कि भ्रम की उम्र बहुत लंबी नहीं होती
इससे पहले कि तुम्हारी अतीतमोह की यह मूर्छा
एक विस्फोट की तरह टूटकर
तुम्हारी कल्पनाओं की इमारत को धराशायी कर दे
सर्वश्रेष्ठता के तुम्हारे सपने को तार-तार कर डाले
बेहतर है कि जड़ता की
इस नशीली नींद से आंखें खोलो
उठो और खोल दो अपने दरवाज़े
बीते वक़्त के कड़वे-मीठे सच पर
झांकने दो खिडकियों से
नई सुबह की रोशनी
निकलो संकरी सोच की तंग गली से
सार्वभौम उदारता के खुले प्रांगण में
होने दो तन को, मन को
स्नेह के सुवास से गंधित
और बहने दो अपने आसपास
सहज सौहार्द की शीतल मंद बयार
अपना लो इस नई आलोकमय दुनिया को
जो कब से तुम्हारे लिए प्रतीक्षारत है
अपनी उत्सुक बाहें फैलाए