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अपहरण / गुलशन मधुर

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ऐ मेरे बिछुड़े देश
मैं तुझ में नहीं हूं
पर तू मुझ में है
बसा ही नही, रचा-बसा
मेरा वह सारा व्यतीत
जो तुझ से जुड़ा है
तेरी धरती पर बीते
पल-छिन, दिन, महीने, साल
वह सारी सुधियां
गूंजती खिलखिलाहटें, मौन आंसू
उलसते, गुदगुदाते रोमांस
सपने तोड़ती मायूसियां
और भी कितना ही कुछ

और मुझ में उस सबसे भी
कहीं अधिक समाहित
तेरा गौरवमय इतिहास
तेरा भव्य अतीत
जिसके जाने-समझे तथ्य
यादों में चाहे कुछ धुंधला गए हों,
पर आज भी रक्षित है
मज्जा में, शिराओं में
एक विरासत
मन के कोने-कोने को
और जीवन के ऊबड़-खाबड़ पथ को
आलोकित करता चलता
मिथकों के बीच से झांकता अमोल सत्य

स्मृतिपटल पर अब भी अंकित हैं
सौंदर्य और सुरुचि की
गरिमा और गौरव की प्रतीक
वह छवियां
कोणार्क, अजन्ता और खजुराहो के
सांस लेते पत्थर
ताज का तिलिस्म
कालिदास की कल्पना
और जयदेव का जादू
भूली नहीं है
ख़ुसरो की बांकी हिन्दवी
सूर का ललकता-छलकता वात्सल्य
मीरा की हरि गुन गाती मगनता

आज भी याद है
ख़ुद अपना इंतज़ार करते मीर की बेख़ुदी
ग़ालिब का अंदाज़े-बयां और
वारिस की हीर, बुल्ले की काफ़ियां
दिल के कैनवस पर अब भी अक्स है
फ़िदा हुसैन का रंगीन तसव्वुर
शेरगिल की क्लासिक आधुनिकता
कानों में आज भी गूंजते हैं
अमीर ख़ां और किशोरी के स्वर्गिक आलाप
लता और रफ़ी की मदमाती तानें

यह सब, और भी बहुत कुछ
इतिहास का वह अनूठा सत्त्व
जो मुझे परिभाषित करता है
मुझे देता है मेरी पह्चान, मेरी अस्मिता
जो मेरी धरोहर है
मेरी अक्षुण्ण संपदा

लेकिन अब वे
मेरी धरोहर का, तेरे वजूद का अर्थ बदलने पर तुले हैं
किन्हीं कोनों, कोटरों से एकाएक निकल आए
परम्परा के पहरे पर आ बैठे
संस्कृति के स्वघोषित अलमबरदार
मुझे देना चाहते हैं एक नई परिभाषा
बांध कर अपनी अतर्क व्याख्याओं की बेड़ियों में
संकुचित करना चाहते हैं मुझे,
संकुचित करना चाहते हैं तुम्हें

ऐ मेरे बिछुड़े देश
मुझे, तुम्हें रोकनी है
अतीत के गौरव के नाम पर
परम्परा को
तंगदिली की धुंद में झोंकने की यह साज़िश

उनसे रक्षित करनी है अपनी पहचान
जो गौतम और गांधी के
कबीर और नानक के
टैगोर और विवेकानंद के शब्दों को
पहना रहे हैं मनमाने अर्थ
कर रहे हैं अपहरण
हमारी सदियों की संचित सोच का

रोकना होगा
कोहरा फैलाने वालों का यह खेल
उन्हें लौटाना होगा
उन्हीं कोनो कोटरों में
जहां से वे
बाहर घिर आए क्षणिक अंधेरों को
रोशनी की पराजय मानकर निकल आए हैं
उन्हें वापस करना होगा
उनकी अंधेरी गुफाओं में
कि हम रक्षित रख सकें
अपने शाश्वत सत्य को
जो हमारी अस्मिता है, पहचान है
सहेजे रह सकें उस धरोहर को
जो हमारे कल की परिभाधा थी
जो हमारे आज की परिभाषा है