भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम-विमर्श / सांत्वना श्रीकांत

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:31, 16 नवम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सांत्वना श्रीकांत }} {{KKCatKavita}} <poem> एक न...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक ने कहा -बहुत संवेदनशील हूँ
मैं..इकलौती थी अपने माँ बाबा की,
दूसरी ने कहा -सारी बहनों में सबसे छोटी थी..
ज़्यादा लाड़ मिला है मुझे,
तीसरी ने कहा-घर में स्नेह से अपूर्ण रही, रिक्तता है
चौथी ने कहा- खाली पेट सोना पड़ता है
फिर भी ज्यादा ज़रूरी है प्रेम उसके लिए,और गला रूँध आया

और भी थीं..
जिन्होंने अपने प्रेमी की प्रेमिकाओं का भी
सावधानीपूर्वक ध्यान रखा
हर ज़रूरत को बड़ी सूक्ष्मता से पूरा किया
यहाँ तक नगरवधू ने भी अपने प्रेमी को ही स्वयं का मन सौंपा..
कुछ ने पति से पिटने के बाद भी,
आख़िरी बार उसके स्पर्श को याद किया
और आँखों में वही जिजीविषा
छटपटाने लगी,

लंबी कतार थी
स्त्रियों ने यह समझने -समझाने की इच्छा से तर्क दिए
कि उन्हें प्रेम से परिपूर्ण क्यों किया जाए?
वो चाहती हैं उन्हें चुना जाए सबसे ऊपर
समस्त प्रतिभाओं से परिपूर्ण
वे प्रेम के अपूर्णता का बोझ ढो नही पाती
उनके लिए प्रेम
दो जून की रोटी से अधिक आवश्यक है।