भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी ही देह के पंचतत्त्व में... / सांत्वना श्रीकांत

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:43, 16 नवम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सांत्वना श्रीकांत }} {{KKCatKavita}} <poem> तुम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारे माथे पर
होठों की गोलाई के सहारे अंकित करूँगी कई आकाशगंगाएँ
तुम्हारा अपूर्ण नभ
बन जाएगा मेरे ब्रह्मांड का विस्तार

आँखें मूँदोगे तो झिलमिल होंगे कई तारे
चाँद भी साथ अठखेलियाँ करेगा

भोर के स्वागत में
मेघपुष्प बन सिंचित करूँगी
अधरों की अभिलाषा
जिजीविषा आच्छादित होगी चेहरे पर उस पल
आलिंगन का उजास छा जाएगा देह पर
अभिसार का सुख
परिवर्तित होगा पूर्णता में

तुम्हारी छाती पर
फैल जाऊँगी नवांकुर के ममत्व- सी
तुम्हारी पंचाग्नि में समर्पित होकर
विलीन हो जाऊँगी
तुम्हारी ही देह के पंचतत्त्व में....