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सापेक्षिक जिन्दगी / अजय कुमार

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जितनी देर में
अपने बिस्तर से उठकर
अलसाये मन से
अपनी अलमारी में
ढूँढ निकालते हो
तुम अपनी
मनपसन्द एक किताब
उतनी देर में एक ठेलेदार
चढ़ा देता है
तीसरे माले तक
एक बोरी गेहूँ

जितनी देर में
आईने में देख कर
ठीक करते हो
आप अपनी टाई
और अपनी पत्नी से लेते हो
रोज सुबह आफिस जाने के लिए
एक चुम्बन के बाद विदा
उतनी देर में
फुटपाथ पर बैठा
एक मोची बना देता है
अपने ग्राहक का एक जूता

जितनी देर में
तुम नुक्कड़ की दुकान से
खरीदते हो एक पैकेट सिगरेट
उतनी देर में एक कुली
पुल चढ़ कर
किसी यात्री का
पहुँहुचा देता है सारा सामान
उसके डिब्बे तक
 
सापेक्षता के इस नियम से
मापोगे अपनी अगर जिंदगी
तो तुम्हें लगेगा
तुम भोग रहे हो
अपना हर दुख भी
कितने ऐश्वर्य से...