Last modified on 17 नवम्बर 2022, at 03:54

एक अरसे बाद लिखी कविता..... / सांत्वना श्रीकांत

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:54, 17 नवम्बर 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरे माथे पर तुम्हें
सहस्र आकाशगंगाओं का
विस्तार मिलेगा
महसूस करना तुम
होंठो पर हज़ारों ज्वार
अपने चुम्बन की शीतलता से
रोक देना उन्हें वहीं।
अनेक थपेड़ों के बाद बचा अखंडित मेरा शरीर
जब बिखर जाएगा तुम्हारे आलिंगन में
स्पर्श से मोक्ष देना उसे,
राम की ही भाँति
जैसे उन्होंने अहल्या-पगधूरि
को दिया था।
तुम मल लेना
मेरे पार्थिव शरीर की अस्थि-धूरी अपने हृदय से,
कालजयी आलिंगन की
पृष्ठभूमि रचते हुए
समस्त परम्परा से
उन्मुक्त होकर
हमेशा के लिए
अनुषक्त हो जाना मुझसे।