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बादल / लिली मित्रा
Kavita Kosh से
मैंने पकड़ा नहीं है
बादलों को
अपनी मुट्ठियों में कभी,
मैं बस देखती हूँ आस भरी निगाहों से
नीले आकाश पर तैरते हुए
या,पहाड़ों की चोटियों से
लिपटकर गुज़रते हुए,
सुना है वे छूकर गुज़रते हैं
तो भीगा जाते हैं
अपनी आर्द्रता से
मैंने कभी तुमको भी नहीं
पकड़ा अपनी हथेलियों से,
बस देखती रहती हूँ
तैरते हुए बादलों की तरह
अपने प्रेमाकाश पर
चाहती हूँ बन जाना किसी पर्वत का शिखर
चाहती हूँ तुम लिपट कर भिगा दो मुझे भी।
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