तुम्हारी तारीफ़ सुनते ही / रूपम मिश्र
तुम्हारी तारीफ़ सुनते हुए हमेशा ऐसे लगा जैसे तुम मुझसे निःसृत हो,
मुझसे बने हो, या संसार में मेरी एक अप्रतिम खोज हो तुम
या ये भी कि एक केवल मैं ही जानती हूँ तुम्हारी सारी सतहें
तुम्हारी भूख - प्यास
अन्तहीन यात्राएँ और दिया - बाती की तरह तुमसे लिपटी तुम्हारी पीड़ाएँ ।
लेकिन इस सच को कहाँ लेकर जाऊँ कि
प्रेम में हम बहुत कुछ वह चाहने लगते हैं जो हमारा नहीं है
उस दूसरे मनुष्य का है, जिससे हम प्रेम करते हैं
और तुम तो जानते हो, ये प्रेम - वेम मनुष्य से बड़ा नहीं होता ।
और आज जब तुम खो गए हो मुझसे
तो दुख और बेचैनी का आलम ये है कि लगता है कि गांव में मनमारे हुए शोक की साँझ उतरी है
वीराना अन्धेरा घना हो रहा है और दूर कहीं कोई स्त्री रो रही है, क्योंकि उसका नन्हा सा बच्चा कहीं खो गया है ।