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त एह पढ़ला से का फायदा / मनोज भावुक

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बाबूजी के आँख पर
चढ़ गइल बा मोतियाबिंद वाला चश्मा।
तबो उ ढ़ो-ढ़ो के पहुँचावत बाड़न
चाउर-दाल, तर-तरकारी, घीव-गुड़
अपना बबुआ किहाँ।
बबुआ ऑफिसर नू बा शहर में।
आ बबुआ बो?
बबुआ बो कंप्यूटर इंजिनियर हई।
दूनू बेकत बड़ी मानेला माई के।
"माई" ले बढ़िया "दाई" कहाँ मिली?
माई रे माई हाय रे दाई!
ई गड़तरे फींचे खातिर ।
बनल बाड़ी स का ए भगवान्!
तेहू पर बबुआ बो के टांय-टांय।
बाबूजी सोचे लगलें–
अनेरे नू हम अपना के काटत-छांटत रहनी
जिनगी भर।
कुछुओ डभका लीं, कुछुओ पहिर लीं,
केकरा खातिर?
बबुए खातिर नू।
कि बबुआ अंगरेजी पढ़ो,
ऑफिसर बनो।
तब?
बाबूजी सोझिया आदमी।

उनका सब गलती आपने बुझाइल।
जे उ बबुआ के अंगरेज त बनइलें
बाकिर ना बनइलें "आदमी" ।
ना सिखइले "जिनिगी जीये के लूर"।
ना डलले ओकरा भीतर एगो "संस्कार" ।
बाकिर, पढ़ला-लिखला से
अतनो अकिल ना होखे, का?
त एह पढ़ला से का फायदा।