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रंग प्रणय का छूट गया तो / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'

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मैं बनकर शृंगार किसी का, मधुमासी गीतों को स्वर दूँ।
पर डरता हूँ, प्रेमिल सपना, इक धागे-सा टूट गया तो!

मेरे मन के खाली आँगन,
में जो पौधा उग आया है-
जी करता है, सींच उसे मैं,
उर-आँगन में खिल जाने दूँ।
उसकी खुश्बू की शुचिता से,
अपने भावों को नहलाकर,
उसके रंगों में अपनी,
बदरंग कहानी मिल जाने दूँ।

जी करता है, मैं भी चूड़ी,
कंगन, काजल, आँचल गाऊँ,
किन्तु अधर पर आकर मानो-
रंग प्रणय का छूट गया तो!

मैं बनकर शृंगार किसी का, मधुमासी गीतों को स्वर दूँ।
पर डरता हूँ, प्रेमिल सपना, इक धागे-सा टूट गया तो!

मेरे मन के क्लांत पटल पर,
रंगों की बरसात हुई है।
जी करता है, इन रंगों को,
अपने मन में घुल जाने दूँ।
अपनी पीड़ाओं, अवसादों,
और व्यथित करती सुधियों को-
इन रंगों की पावनता का,
परस कराकर धुल जाने दूँ।

जी करता है, कर दूँ उसको,
पूनम की आभा से उपमित,
किंतु जगत की नज़र लगी औ'-
नेह-कलश ही फूट गया तो!

मैं बनकर शृंगार किसी का, मधुमासी गीतों को स्वर दूँ,
पर डरता हूँ प्रेमिल सपना, इक धागे-सा टूट गया तो!

मेरे मन की बंजर वसुधा,
में जो नेहिल भाव दबे हैं,
जी करता है उनमें भर,
शब्दों की मधुता, उग जाने दूँ।
फिर, चिड़िया! जो चहक रही थी,
कल मेरे सूने उपवन में,
आज उसे अपने गीतों का,
अक्षर-अक्षर चुग जाने दूँ।

जी करता है नित्य उसे मैं,
देखूँ गीतों के उपवन में,
किन्तु किसी दिन मुझसे इन-
गीतों का नाता टूट गया तो!

मैं बनकर शृंगार किसी का, मधुमासी गीतों को स्वर दूँ,
पर डरता हूँ प्रेमिल सपना, इक धागे-सा टूट गया तो!