उसके ही पग धोते-धोते / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
अब ये आँसू सूख चुके हैं, एक दशक से रोते-रोते।
जिस उपवन में फूल न खिलते, मैं उस उपवन का माली हूँ।
मरुथल में जितना सूनापन, भीतर उतना ही खाली हूँ।
प्रेम भरा घट, रीत गया है,
मैं हारा, वह जीत गया है,
और दशक यह बीत गया है
अंतर्मन को टोते-टोते।
अब ये आँसू सूख चुके हैं, एक दशक से रोते-रोते।
उसका नेह लुटाऊँ उसपर, इतना भी अधिकार नहीं है।
पायलिया झनके झननन झन, पर मन में झंकार नहीं है।
काश! कहीं से बह जाऊँ मैं,
मिलूँ उसे, तो कह जाऊँ मैं,
मना करे, तो रह जाऊँ मैं
उसके ही पग धोते-धोते।
अब ये आँसू सूख चुके हैं, एक दशक से रोते-रोते।
ये सब मेरे गीत नहीं हैं, मैं अपने अनुभव लिखता हूँ।
चिड़िया के आकाश गमन पर, चीड़ा का कलरव लिखता हूँ।
तिनका चोंच दबाता चीड़ा,
डाल-डाल पर जाता चीड़ा,
जाने' किसे बुलाता चीड़ा
गाकर विह्वल होते-होते।
अब ये आँसू सूख चुके हैं, एक दशक से रोते-रोते।