भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सफ़र पर जाते समय / अमरजीत कौंके

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:32, 11 दिसम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरजीत कौंके |अनुवादक= |संग्रह=आक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सफ़र पर जाते समय
घर से निकलता हूँ जब
लगता है जैसे
कुछ छूट गया है

रुमाल, पेन
घड़ी, मोबाइल, पर्स
सब कुछ तो पास है
लेकिन फिर भी लगता है
जैसे कुछ रह गया है

रह गया है ख़्याल कोई
मेज़ पर पड़ा
किसी किताब में छिपा
अहसास कोई रह गया है
पुरानी कमीज की जेब में
रह गया है विचार कोई
शब्दकोश में छूट गया है
शब्द कोई

सब कुछ कहाँ साथ
ले जा सकता है आदमी।