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पनाह / अमरजीत कौंके

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पृथ्वी उठाती नहीं जब बोझ मेरा
हवाओं से लुप्त होने लगती जब
मेरे हिस्से की आक्सीजन
शहर के लोग तब्दील होते
खूँखार जानवरों में
स्मृतियों का पंजा
मेरी गर्दन पर जब
अपना कसाव बढ़ाता है

मन के इर्द-गिर्द
फैलता है जब उदासी का सैलाब
देह की सारी कोशिकाएँ
होने लगती हैं मुर्दा
सूरज डूबने लगता है जब
मेरी आंखों में

घर-बाहर
कहीं भी चैन नहीं आता
मेरी रगों में दौड़ने लगते
जब रेतीले चक्रवात
दिन जब
किसी वहशी कसाई की तरह
मुझे धीरे-धीरे हलाल करता है
और मेरे मन में तड़पता परिंदा
अनहोनी मौत मरता है
और मरने लगा
दर्द-भरी कोई चीख मारता है

ख़ुदकशी के ख़्याल
जब मन की दीवारों से
बारिश के पानी की तरह
टकराते हैं

ऐन
उसी पल
मैं तुम्हारे जिस्म में
पनाह ढूँढता हूँ।