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तब भी क्या / अमरजीत कौंके
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तब भी क्या
इसी तरह चाहोगी
तुम मुझे
सफ़र जब मेरे
पैरों में सिमट आया
आइने को भूल गई
मेरे नक्शों की पहचान
उग आया जब मेरे चेहरे पर
सफेद जंगल
मेरी शाखाओं से तोड़ लिया जब
बहार ने नाता
क्या तब भी तुम मेरी टहनियों पर
घोंसला बनाने का
सपना लोगी
आकाश के पन्ने पर लिखा
मिट गया जब नाम मेरा
आँखों की दहलीज़ पर
फैल गईं जब
संध्या की परछाइयाँ
रोशनी मेरी
आँखों में सिमट आई
उड़ान मेरे पँखों को
कह गई अलविदा
शब्द
जब मेरा हाथ छोड़ कर
दुनियाँ के मेले में खो गए
मेरे होठों से
रूठ गई कविताएँ जब
क्या तब भी
तब भी
इसी तरह चाहोगी
तुम मुझे?