भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोशनी की तलाश में / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:52, 11 दिसम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरजीत कौंके |अनुवादक= |संग्रह=आक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आगे सघन जंगल है
अँधेरा है
डरावनी आवाज़ों का शोर है
काली हवाओं की सांय-सांय है
वृक्षों पर साँप फुँकारते
पाँवों में टूटी दीवारों की
किरचें चुभती हैं
आग बरसाती
लाल सुर्ख आंखें चारों तरफ
रोशनी का लेकिन
दूर तक नामो निशान नहीं
जगह-जगह हमारे पांवों में आवाजे़ं उलझती
बच्चों के बिलखने की आवाज़
किसी के सिसकने की आवाज़
कभी आवाज़ें आती पूर्वज़ों की
वापिस बुलाती
हम आवाज़ों के इन बीहड़ों में भटकते
क्षण भर के लिए रुकते
संभलते, फिर चलते
एक-दूसरे का हाथ पकड़े
अदृश्य रोशनी की तलाश में।