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कौन पढ़ेगा कविताएँ / अमरजीत कौंके

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इस मौसम में
कौन पढ़ेगा कविताएँ?

जब डिश एंटीने से
कमरे के भीतर घुस आया है संसार
बच्चे मोबाइल गेमों में उलझे
स्त्रियाँ ब्यूटी-पार्लर में
हेयर स्टाइल बनातीं
पुरुष बढ़ते-घटते शेयरों का
हिसाब-किताब करते

इस मौसम में
कौन पढ़ेगा कविताएँ?
आदमखोर दैत्य का पंजा जब
हर मुल्क, हर शहर पर मंडरा रहा
हर गाँव हर नगर पर
अपना कसाव बढ़ा रहा
लोगों को अपना महत्त्व बता रहा
जीने के अर्थ समझा रहा
इस मौसम में शायर
तुम्हारी शायरी कौन पढ़ेगा?

इस दौर में
कौन पढ़ेगा कविताएँ
भाषा जब अपनी पहचान खो रही
शब्द अपने अर्थ गँवा रहे
परिभाषाएँ इस तरह बदलीं
कि एक दम उलट गईं
खंडित परम्पराएँ
मिट रहे संस्कार
वैश्वीकरण की इस अंधी दौड़ में
कौन पढ़ेगा कविताएँ?

कौन पढ़ेगा कविताएँ
कि बीज जब मिट्टी से नहीं
खाद से पनपने लगे
आदमी जब खुराक पर नहीं
ट1निक पर जीने लगा
मिट्टी अपनी ताकत गँवा रही
शब्द अपनी शक्ति
जीवन जब
किसी खोखले वृक्ष की भांति
लड़खड़ा रहा

ऐसे दौर में
ऐ कवि!
तुम्हारी कविताएँ
कौन पढ़ेगा?