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मैं जब भी / अमरजीत कौंके
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मैं जब भी भटका
सदा
परछाईयों के पीछे भटका
मेरी प्यास को
जब भी छला
सदा रेत ने छला
मेरी प्यास का
जुनून था
कि मैं रेत और पानी में
फर्क न कर पाया
मेरी प्यास की शिखर थी
कि मैं
परछाई और असलीयत की
पहचान न कर पाया
हर चश्मे के पीछे
मैं किसी पागल मृग की भांति
दौड़ता
लेकिन पानी के पास पहुँचता
तो वह रेत बन जाता
दरअसल पानी के पीछे नहीं
मैं अपनी ही
प्यास के पीछे दौड़ रहा था
मेरा जुनून
मेरी अपनी ही प्यास की
परिक्रमा करता था
मेरी प्यास का
जुनून था
कि मैं रेत और पानी में
फर्क ना कर पाया।