दोहा दशक-1 / गरिमा सक्सेना
मुखरित हुए सवाल फिर, बोल रहे हैं जाग।
चाह रहा है क्यों भला, तू कुहरे से आग।।
‘गरिमा’ यूँ ही तो नहीं, दिखता समय कुरूप।
बर्फ़ बनाई जा रही, अब आँगन की धूप।।
अधरों को कुतरा गया, खींची गई ज़बान।
यूँ ही सच इस देश में, हुआ नहीं हलकान।।
सपने हो जाएँ नहीं, मन से आज अपंग।
हमको हर अन्याय से, लड़नी होगी जंग।।
जली हुई ये रोटियाँ, रोईं सारी रात।
मैंने ही पैदा किये, ज़ख्मों के हालात।।
अँधियारा ही हर तरफ़, दिखे न कोई राह।
हिम्मत हारी साँस अब, रूठी बैठी चाह।।
कितना बासी हो गया, हर दिन का अख़बार।
जैसे निकले भोथरी, नये ब्लेड की धार।।
फूल सभी बेरंग हैं, अधर सभी मायूस।
ले आई सरकार फिर, पाँच वर्ष का पूस।।
मोमबत्तियाँ रो रहीं, बनती रहीं कतार।
मगर थमा कब देश में, वहशी कारोबार।।
रातरानियों को मिला, आँगन का अधिकार।
तुलसी विस्थापित हुई, खोज रही है प्यार।।