दोहा दशक-2 / गरिमा सक्सेना
कुछ चोटें गहरी मगर, दिखते नहीं निशान।
कुछ चीखें खामोश-सी, सुन कब पायें कान।।
चाहे कुहरे ने किये, लाखों कठिन सवाल।
पर सूरज के हाथ में, जलती रही मशाल।।
सिर्फ़ दिखावे तक रहा, अब कानूनी जोग।
हाथों की बातें नहीं, चाबुक पर अभियोग।।
तार-तार होती रही, फिर भी बनी सितार।
नारी ने हर पीर सह, बाँटा केवल प्यार।।
तितली-सी उन्मुक्त है, बेटी की परवाज़।
मगर कहाँ वह जानती, उपवन के सब राज़।।
धूप उजाला माँगती, जा दीपक के पास।
‘गरिमा’ कितना क्षीण अब, हुआ आत्मविश्वास।।
धूप ओढ़कर दिन कटे, शीत बिछाकर रात।
अच्छे दिन देकर गये, इतनी ही सौगात।।
नये दौर का आदमी, कितना है नादान।
अँधियारे को सींचकर, फल चाहे दिनमान।।
मुझे कभी भाया नहीं, इत्रों का बाज़ार।
मैं ख़ुद में जीती रही, बनकर हरसिंगार।।
रही फटकती उम्र भर, उम्मीदों के सूप।
नारी को पर कब मिली, कतरा भर भी धूप।।