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खिल गए फूल पलाश के / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु

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निर्जल घाटी के सीने पर
आखर लिख दिये प्यास के ।
जंगल में भी शीश उठाकर
खिल गए फूल पलाश के ।

निर्गन्ध कहकरके ठुकराया
मन की पीर नही जानी
छीनी किसने सारी खुशबू
बात न इतनी पहचानी

इसकी भी साथी थी खुशबू
दिन थे कभी मधुमास के ।

पाग आग की सिर पर बाँधे
कितना कुछ यह सहता है
तपता है चट्टानों में भी
कभी नहीं कुछ कहता है

सदियाँ बीती पर न बीते
अभागे दिन संन्यास के ।

यह योगी का बाना पहने
बस्ती में आता कैसे
कितना दिल में राग रचा है
 सबको बतलाता कैसे

धोखा इसने जग से खाया
जल गए अंकुर आस के ।

इसकी पीड़ा थी एकाकी
सुनता क्या बहरा जंगल
इसके आँसू दिखते कैसे
मिलता कैसे इसको जल

न बुझी प्यास मिली जो इसको
न बीते दिन बनवास के।
-0-(20 जून 2011)