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दहकते लम्हों का मौसम / फ़िरदौस ख़ान

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मेरे महबूब
ये दहकते लम्हों का मौसम है
जिसकी सुबह
दहकती हैं
दहकते पलाश के
सुर्ख़ फूलों की तरह

जिसकी दोपहरें
दहकती हैं
तपते सहरा की
गरम रेत की तरह...
जिसकी फ़िज़ाओं में
आंधियाँ चलती हैं
और
हर सिम्त
धूल के ग़ुबार उड़ते हैं
वीरान सड़कों पर
ख़ामोशी-सी बिछ जाती है

मेरे महबूब
ये दहकते लम्हों का मौसम है
जिसकी शामें
सुलगती हैं
चंदन की अगरबत्तियों की तरह
और
फ़िज़ा में भीनी महक छोड़ जाती हैं

जिसकी रातें
पिघलती हैं
फ़ानूस में लगी
सफ़ेद मोमबत्तियों की तरह
और
इसी तरह
दहकते, सुलगते
एक और दिन
वक़्त के अलाव ग़र्क़ हो जाता है

सच
ये दहकते लम्हों का मौसम है।