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जंगल-जंगल / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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जंगल­ जंगल आग लगी है

घिरे बीच में हम ।

झुलस गया है रोयाँ ­रोयाँ

हुई न आँखें नम ।

रोते भी तो हम क्यों रोते

दर्द समझता कौन ।

कुछ हँसते ,कुछ नज़र चुराते

कुछ रह जाते मौन ।

आग लगाने वाली दुनिया

आग बुझाते कम ।

अच्छे का अंजाम बुरा है

जाने हम यह बात ।

करें बुरा हम बोलो कैसे

दिल कब देता साथ ।

आशीर्वाद करें क्या लेकर

शापित जनम­ जनम ।

रेगिस्तानों में निकल पड़े हम

प्यास बुझाने को ।

कपटी साथी आए दूर तक

राह बताने को ।

हमने हँस ­हँस झेले तीखे

चुभते तीर विषम ।
[24-4-9 4: आका-अम्बिकापुर20-2-98]