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सफ़ेद मधुमक्खी / पाब्लो नेरूदा / अशोक पाण्डे

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सफ़ेद मधुमक्खी, शहर के नशे में चूर, तुम गुनगुनाती हो मेरी आत्मा में,
और तुम्हारी उड़ान धुएँ के धीमे कुन्तलों में लिपटती जाती है ।

मैं हूँ बिना उम्मीद का, बिना प्रतिध्वनियों का शब्द,
वह जिसने गँवा दिया सब कुछ, वह जिसके पास सब कुछ था ।

आख़िरी रस्सी, तुममें चरमराती है मेरी आख़िरी इच्छा,
मेरी बंजर धरती पर तुम हो आख़िरी गुलाब ।

आह ! ख़ामोश हो तुम !

बन्द होने दो अपनी अगाध आँखों को, रात फड़फड़ाती है वहाँ,
आह, तुम्हारी देह, एक भयभीत प्रैमा निर्वसन ।

गहरी आँखें हैं तुम्हारे पास, जिनमें धमधमाती है रात,
फूलों की ठण्डी बाँहें और गुलाब की गोदी ।

तुम्हारे स्तन घोंघों जैसे लगते हैं,
परछाईं की एक तितली तिम्हारे पेट पर सोने आई है ।

आह ! तुम जो ख़ामोश हो !

यहाँ है वह एकाकीपन, जिसमें तुम अनुपस्थित हो ।
बारिश हो रही है । समुद्री हवा भटक गई बत्तखों का शिकार कर रही है ।

गीली सड़कों पर नंगे पाँव चलता है पानी ।
उस पेड़ की पत्तियाँ शिकायत करती हैं, मानो वे बीमार हों ।

सफ़ेद मधुमक्खी, हालाँकि तुम जा चुकी हो, पर अब भी तुम गुनगुनाती हो मेरी आत्मा में,
तुम जीवित हो समय के भीतर दुबारा से — कृश और निश्शब्द ।

आह, तुम जो ख़ामोश हो !


अँग्रेज़ी से अनुवाद : अशोक पाण्डे