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कुण्डलियाँ-4 / बाबा बैद्यनाथ झा

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लिखते थे लेकर सभी, कागज कलम दवात।
इस नवपीढ़ी के लिए, यह अचरज की बात॥
यह अचरज की बात, नया युग ऐसा आया।
नई-नई तकनीक, बनाकर जग में छाया॥
सुन पहले की बात, अचम्भित सब हैं दिखते।
सबको है कीबोर्ड, उसी पर हम अब लिखते॥

करते हैं सब कामना, मिले एक प्रिय मित्र।
मगर स्वार्थ मन में बसे, है यह बात विचित्र॥
है यह बात विचित्र, प्रेम निःस्वार्थ टिकाऊ।
जग में प्रायः लोग, मिलेंगे मात्र बिकाऊ॥
रख मन में संदेह, हृदय से सब हैं डरते।
मात्र साधने स्वार्थ, क्षुद्रजन मैत्री करते॥

जिससे भी हो आपको, करें प्रेम निःस्वार्थ।
नहीं समझिए व्यक्ति को, कथमपि एक पदार्थ॥
कथमपि एक पदार्थ, हृदय को निर्मल रखिए।
सुख-दुख में दे साथ, प्रेम का मेवा चखिए।
रखकर आप प्रपंच, स्नेह पाएँगे किससे?
आने मत दें स्वार्थ, प्रेम करते हैं जिससे॥

वर्ष ईस्वी की विदाई पर विशेष
जाने वाला आज है, विध्वंसक यह वर्ष।
हो अब आगत वर्ष में, हे प्रभु जग में हर्ष॥
हे प्रभु जग में हर्ष, दूर हो व्याधि भयंकर।
भक्तों के अपराध, क्षमा कर दें शिव शंकर॥
सुखद बने इक्कीस, वर्ष यह आनेवाला।
अति दुखदायी बीस, आज है जाने वाला॥

देकर सुख-दुख जा रहा, आज वर्ष यह बीस।
हे प्रभु सुखमय हो सके, आगत यह इक्कीस॥
आगत यह इक्कीस, साँस जग सुख की ले अब।
बढ़े आयु ऐश्वर्य, खुशी ही सबको दे अब॥
काल कष्ट भय त्रास, वर्ष यह जाए लेकर।
जग को सुख संदेश, हर्ष ही जाए देकर॥

तजकर सबको जा रहा, ईसाई यह वर्ष।
मेरी है शुभकामना, बढे़ पुनः उत्कर्ष॥
बढे़ पुनः उत्कर्ष, नहीं कोई रो पाए।
सुखमय हो अब विश्व, गीत सुख के ही गाए॥
बाबा लिखता छंद, नाम माता का भजकर।
जाए अब यह बीस, जगत को जीवित तजकर॥

सैनिक वापस जा रहा, छूट रहा परिवार।
पत्नी कहती शीघ्र तुम, आ जाना इस बार॥
आ जाना इस बार, पेट में बच्चा पलता।
कैसे दूँगी जन्म, तुम्हें क्या यह नहि खलता॥
एकाकी लाचार, कार्य कैसे हो दैनिक।
बुला रहा कर्तव्य, नहीं रुक पाता सैनिक॥

जाता है वह युद्ध पर, घर पत्नी से दूर।
संकट में जब देश हो, निज सुख नहि मंजूर॥
निज सुख नहि मंजूर, विदा पत्नी है करती।
प्रसव काल नजदीक, अकेली है वह डरती॥
सैनिक है मजबूर, नहीं वह समझा पाता।
बुला रहा है देश, विवश हो रक्षक जाता॥

करते हैं सब कामना, मिले एक प्रिय मित्र।
मगर स्वार्थ मन में बसे, है यह बात विचित्र॥
है यह बात विचित्र, प्रेम निःस्वार्थ टिकाऊ।
जग में प्रायः लोग, मिलेंगे मात्र बिकाऊ॥
रख मन में संदेह, हृदय से सब हैं डरते।
मात्र साधने स्वार्थ, क्षुद्रजन मैत्री करते॥

जिससे भी हो आपको, करें प्रेम निःस्वार्थ।
नहीं समझिए व्यक्ति को, कथमपि एक पदार्थ॥
कथमपि एक पदार्थ, हृदय को निर्मल रखिए।
सुख-दुख में दे साथ, प्रेम का मेवा चखिए।
रखकर आप प्रपंच, स्नेह पाएँगे किससे?
आने मत दें स्वार्थ, प्रेम करते हैं जिससे॥