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कुण्डलिया से प्रीत-3 / बाबा बैद्यनाथ झा

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करते हत्या गर्भ में, जो पापी माँ बाप।
उस हत्यारे को लगे, अति जघन्य वह पाप॥
अति जघन्य वह पाप, वृद्धि उस घर की घटती।
करते पश्चाताप, जिन्दगी दुखमय कटती॥
सीधे जाते नर्क, कभी जब पापी मरते।
निज बेटी को मार, पाप जो भी हैं करते॥

जाता है बालक भटक, भूल अगर निज राह।
उसका जब लगने लगे, मिलना खूब अथाह॥
मिलना खूब अथाह, अधूरा लगता झूला।
मिला हुई जब शाम, सुबह का था जो भूला॥
करने बस सत्कर्म, जगत में मानव आता।
विस्मृत कर सन्मार्ग, भटक वह क्यों है जाता॥

आया था जो पत्र कल, लिखती आज जवाब।
आ पाते हैं क्यों नहीं, कहिए आप जनाब।
कहिए आप जनाब, नहीं मैं बिल्कुल सोती।
आती हरदम याद, रात भर रहती रोती॥
मुझे विरह में छोड़, आपने क्यों तड़पाया।
करती पत्र समाप्त, डाकिया लेने आया॥

आया था पागल कभी, एक हमारे द्वार।
आकर्षक व्यक्तित्व था, हुआ उसी से प्यार॥
हुआ उसी से प्यार, बात जब जानीं सखियाँ।
समझ गयीं सब भेद, लड़ी हैं किससे अँखियाँ।
अभिभावक तैयार, हाथ पीले करवाया।
प्रभु प्रेरित संयोग, युवक वह घर पर आया॥
 
बहता पानी की तरह, होता बन्धु विचार।
आप गन्दगी डाल क्यों, करते अत्याचार॥
करते अत्याचार, बनेगा उससे नाला।
जब हों उच्च विचार, सूर्य सम प्राप्त उजाला॥
गन्दे जल में मात्र, तुच्छ प्राणी ही रहता।
जब विचार हों शुद्ध, गंगजल ही फिर बहता॥

रहता है जंगल बना, धरती का शृंगार।
पेड़ काट कर आप क्यों, करते अत्याचार॥
करते अत्याचार, प्रदूषण बढ़ता जाता।
प्राणवायु का लोप, कष्ट हर प्राणी पाता॥
नित्य लगाएँ पेड़, शास्त्र भी ऐसा कहता।
सुखमय हो हर जीव, विश्व आनन्दित रहता॥

नारी है देती बढ़ा, धन वैभव सम्मान।
अपव्ययी यदि हो गयी, पति का है नुकसान॥
पति का है नुकसान, बना रहता वह नटुआ।
पत्नी की है चाह, मिले बस पति का बटुआ॥
रहता है उद्देश्य, रहे वह पति पर भारी।
मनमाना कर खर्च, बिगाड़े घर को नारी॥

रहते हैं मन में सदा, इष्टदेव श्री राम।
करूँ विहित ही कर्म मैं, सुबह रहे या शाम॥
सुबह रहे या शाम, ध्यान मैं प्रतिपल करता।
कर्त्तापन अभिमान, त्याग सर्वत्र विचरता॥
तत्वज्ञान का सार, कृष्ण गीता में कहते।
सदा कृष्ण या राम, हृदय में मेरे रहते॥

करता मनमानी सदा, जिसे न प्रिय परिवेश।
मिलता स्वाभाविक उसे, कदम-कदम पर क्लेश॥
कदम-कदम पर क्लेश, सदा वह रहता रोता।
बन जाता अभिशप्त, भार पृथ्वी का होता॥
मिलता जब उपहास, अकारण फिर वह डरता।
सदा घृणित हर कार्य, कहीं जब कोई करता॥

जलती हैं बस नारियाँ, चुप है सभ्य समाज।
अग्निपरीक्षा दे रही, हर सीता क्यों आज॥
हर सीता क्यों आज, शाप है उसका जीना।
जीवन है अभिशप्त, गरल पड़ता है पीना॥
है यह सबको ज्ञात, सृष्टि नारी से चलती।
यह चिन्ता की बात, आज भी सीता जलती॥