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कुण्डलिया से प्रीत-5 / बाबा बैद्यनाथ झा

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चलती गोपी मार्ग में, मृदु मुस्की के साथ।
माथे पर गगरी लिए, धरकर उस पर हाथ॥
धरकर उस पर हाथ, भरा है उसमें पानी।
मोहन से कर भेंट, लिखी है श्रेष्ठ कहानी॥
मिले रचाने रास, कामना प्रतिपल पलती।
कान्हा का सान्निध्य, प्राप्त कर प्रमुदित चलती॥

करते नायक नायिका, जब उन्मुक्त विहार।
तब मिलता निश्चित उन्हें, सचमुच सच्चा प्यार॥
सचमुच सच्चा प्यार, नायिका हँसती गाती।
सुन रसमय संगीत, नाचती और रिझाती॥
लुटा परस्पर प्यार, एक दूजे पर मरते।
जीवन का आनन्द, प्राप्त दोनों हैं करते॥

कितना सुन्दर दीखता, शिव का बाल स्वरूप।
बाघम्बर पर है शयन, फिर भी दिव्य अनूप॥
फिर भी दिव्य अनूप, नाग करते रखवाली।
भक्तों का उद्धार, स्वयं की झोली खाली॥
देते हैं वरदान, भक्त माँगेगा जितना।
शिवदानी के पास, कोष अक्षय है कितना॥

करती चिन्तन नायिका, है सर्वस्व सुहाग।
पर मिलती ससुराल में, सदा धधकती आग॥
सदा धधकती आग, सावधानी भी रखती।
देकर भी सर्वस्व, उपेक्षा का विष चखती॥
मिलता बस अपमान, शोक विह्वल हो मरती।
अग्नि-परीक्षण नित्य, सामने देखा करती॥

जितनी मैंने सीख दी, सबको कर साकार।
मेरे बच्चों ने किया, निज कुल का उद्धार॥
निज कुल का उद्धार, देश की करते सेवा।
होकर सब निश्चिन्त, आप हम खाते मेवा॥
दुश्मन सब आक्रान्त, भले हो ताकत कितनी।
सेवा हित कटिबद्ध, शक्ति है तन में जितनी॥
 
जितना संभव हो सका, बाँट दिया सद्ज्ञान।
मेरे बच्चों ने रखा, प्रतिपल सबका मान॥
प्रतिपल सबका मान, कर्म वे उत्तम करते।
चलते सच की राह, नहीं हैं किञ्चित् डरते॥
करें न कुछ भी लोभ, लुभाये कोई कितना।
रहते हैं संतुष्ट, भाग्यफल मिलता जितना॥

भाषण में है नम्रता, वाणी में है लोच।
होती नेता के लिए, कुर्सी ही सर्वाेच्च॥
कुर्सी ही सर्वाेच्च, ठान लेता जब नेता।
विनयशील सत्पात्र, बना ही भाषण देता॥
जब होता आरूढ़, प्राप्त होता सिंहासन।
जनता को फिर लूट, दिव्यमय देता भाषण॥

होता दम्पति का कभी, भाग्य सुखद अनुकूल।
तब खिलता है गोद में, सुन्दर सन्तति-फूल॥
सुन्दर सन्तति फूल, वंश गदगद् हो जाता।
पालपोस कर नित्य, उसे शिक्षित करवाता।
सुखसागर में नित्य, लगाता दम्पति गोता।
पा लेता पुरुषार्थ, श्रवण जब बालक होता॥

आकर मानव योनि में, खुद पर करो विचार।
जाने से पहले कहो, क्या तुम हो तैयार?
क्या तुम हो तैयार, वहाँ सत्कर्म गिनाने।
क्या है सूचीबद्ध, श्रेष्ठ प्रारब्ध दिलाने॥
त्याग सभी अपकर्म, शरण में प्रभु के जाकर।
प्राप्त करो पुरुषार्थ, मनुज तन में तुम आकर॥

करता जो शुभ कर्म ही, सम्मुख और परोक्ष।
फिर सदेह वह व्यक्ति ही, पा लेता है मोक्ष॥
पा लेता है मोक्ष, दूर उससे भवबाधा।
जाने से भी पूर्व, तृप्त हो जातीं राधा॥
जिसे कृष्ण सामीप्य, नहीं वह फल से डरता।
बन कर मात्र निमित्त, कर्म वह प्रतिपल करता॥