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दोहावली-2 / बाबा बैद्यनाथ झा

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डाली से टूटा हुआ, कभी न जुड़ता फूल।
अपनों से व्यवहार में, कभी न करना भूल॥

सदा स्वर्ण की शुद्धता, की ही होती जाँच।
कालिख को क्या जाँचना, लगे न उस पर आँच॥

जीवन को ऐसा बना, जैसे चमके स्वर्ण।
गुण की पूजा सब करंे, नहीं पूछता वर्ण॥

सभी नारियाँ चाहतीं, बेटा श्रवण कुमार।
लेकिन पतियों पर रहे, अपना ही अधिकार॥

सब चाहे धन-संपदा और बढ़े पहचान।
मगर श्रेष्ठ जन चाहते, मात्र आत्मसम्मान॥

बार-बार सब कुछ मिले, धन, पत्नी, परिवार।
नर तन पा सत्कर्म कर, जो न मिले हर बार॥

पितु से ताड़ित पुत्र का, गुरु से शिक्षित शिष्य।
तपा पिटाया स्वर्ण का, होता सुखद भविष्य॥

जीवन काँटों का सफर, हिम्मत को पहचान।
चलकर जो पथ दे बना, वही सफल इंसान॥

मैं केवल मजदूर हूँ, कभी नहीं मजबूर।
मिट्टी को सोना बना, निज गुण से मशहूर॥