खूब रोता है / बाबा बैद्यनाथ झा
किसी को भी मनोरथ का, लगा जब रोग होता है।
नहीं हो पूर्ण अभिलाषा, पुनः वह खूब रोता है॥
अकारण कामना जगती, हमारे चित्त में हरदम,
दमित होती नहीं इच्छा, नहीं कुछ चाह होती कम।
पड़े जब एक भी बाधा, उपजता क्रोध तब भारी,
हरण तब ज्ञान का होता, बने तब घोर लाचारी।
घृणित तब कार्य कर देता, मनुज जब धैर्य खोता है।
नहीं हो पूर्ण अभिलाषा, पुनः वह खूब रोता है॥
विचारें खूब पहले ही, करें जब कार्य हम कोई।
सुनें सब राय भी सबकी, चुनें अनिवार्य हम कोई।
सुधारें ग़लतियों को पर, नहीं हम काम को रोकें,
कभी मत आप घबड़ाएँ, हजारों लोग भी टोकें।
बनें उस बैल के जैसे, सदा जो बोझ ढोता है।
नहीं हो पूर्ण अभिलाषा, पुनः वह खूब रोता है॥
सफलता एकदिन खुद ही, यहाँ आकर मिलेगी ही,
कमलिनी श्रम-सरोवर में, भरोसा है खिलेगी ही।
जगत में नाम फैले जब, सभी गुणगान करते हैं,
जहाँ भी वह चला जाए, सभी सम्मान करते हैं।
सुयश की नीन्द में मधुरिम वही तब नित्य सोता है।
नहीं हो पूर्ण अभिलाषा, पुनः वह खूब रोता है॥