भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गमों का साया घनेरा है / मोहम्मद मूसा खान अशान्त
Kavita Kosh से
Firstbot (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:27, 28 फ़रवरी 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहम्मद मूसा खान अशान्त |अनुवादक=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
गमों का साया घनेरा है हम किधर जाएँ
अभी तो दूर सवेरा है हम किधर जाएँ
सभी ने फेर ली नज़रें ज़माना दुश्मन है
हर एक शख्स लुटेरा है हम किधर जाएँ
उठी हैं काली घटा बिजलियाँ चमकती हैं
कि शाख़े गुल पे बसेरा है हम किधर जाएँ
मिटा रहें हैं हमें अहले गुलसितां अफसोस
इसी चमन मे बसेरा है हम किधर जाएँ
नशा चढ़ेगा अभी और ज़ुल्म का मूसा
अभी तो दूर सवेरा है हम किधर जाएँ