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योजनाओं का शहर-9 / संजय कुंदन
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योजनाएँ अक्सर योजनाओं की तरह आती थीं
लेकिन कई बार वे छिपाती थीं ख़ुद को
किसी दिन एक भीड़ टूट पड़ती थी निहत्थों पर
बस्तियाँ जला देती थी
खुलेआम बलात्कार करती थी
इसे भावनाओं का प्रकटीकरण बताया जाता था
कहा जाता था कि अचानक भड़क उठी है यह आग
पर असल में यह सब भी
एक योजना के तहत ही होता था
फिर योजना के तहत पोंछे जाते थे आँसू
बाँटा जाता था मुआवज़ा
एक बार खुलासा हो गया इस बात का
सबको पता चल गया इन गुप्त योजनाओं का
तब शोर मचने लगा देश भर में
तभी एक दिन एक योजनाकार
किसी हत्यारे की तरह काला चश्मा पहने
और गले में रुमाल बांधे सामने आया
और ज़ोर-ज़ोर से बोला-- हाँ, थी यह योजना
बताओ क्या कर लोगे
सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे
सचमुच कोई उसका कुछ नहीं कर पाया ।