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ओझल गिरोह / असद ज़ैदी

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पुरानी बात है, मैं युवा ही था
पहली किताब आई थी
पढ़ता समाजशास्त्र था, करता कविता था
एक दोपहर सेण्टर से अपने
हॉस्टल मेस की तरफ़ आ रहा था
कि जातीय स्मृति गैंग ने
रास्ते में धर लिया
उनमें से एक के हाथ में काले रंग का गमछा था
इतने पास था मैं उनसे कि पलटने की गुंजाइश न थी

पैदल रास्ता उस वक़्त सूना था दोनों तरफ़
दरमियानी ऊँचाई की झाड़ियाँ
कैम्पस अभी पूरा बना न था
अरावली का उत्तरी सिरे का इलाक़ा
मुनीरका से मसूदपुर तक फैला हुआ
झाड़ियों से भरा सूखा जंगल, ऊबड़ खाबड़ ज़मीन
बीच बीच में बबूल के पेड़ चट्टानें और खाइयाँ
तीतर, बटेर, मोर और नेवलों की पुरानी धरती
अक्सर नीलगायें भी गुज़रती दिख जाती थीं

मोर्चा लेने के लिए यह ख़राब जगह थी

यह उनसे मेरी दूसरी मुलाक़ात थी
पहली बार मैं ग्यारह बारह साला किशोर था
यहाँ से सैकड़ों कोस दूर अरावली के दूरस्थ पूर्वी सिरे पर
भद्रावती में नहाता हुआ
यही गैंग वहाँ किनारे पर, जहाँ मेरे कपड़े रखे थे, खड़ा था
इशारे से बुलाता हुआ और मैं तैरकर
दूसरे किनारे की तरफ़ जाता हुआ
पानी से निकलकर भीगे घुटन्ने में नंगे पैर भागता हुआ
घर जाकर ही रुका, जहाँ पता नहीं क्यों सब ख़ामोश रहे
न किसी ने कुछ पूछा, न मैंने कुछ बताया

और पन्द्रह साल एक धीमी जाती मालगाड़ी की तरह गुज़र गए

वे बोले — हमें पहचाना ? मैंने कहा — हाँ
बोले — हमको कुछ ज़रूरी बात करनी है
जी ज़रूर, मैंने कहा, प्रत्युत्पन्नमति से
अपनी कनिष्ठा दिखाई
और झाड़ियों की तरफ़ इशारा किया
उन्हें कहना पड़ा — हाँ - हाँ, कर आओ

मैं झाड़ियों के बीच घुसता कुछ अन्दर तक चला गया
अचानक दो मोटे तीतर निकलकर भागे
आगे एक साँप की केंचुल पड़ी मिली
धूप में चमकती कई रंग बिखेरती हुई
बबूल के नीचे एक मोर नाचने की तैयारी में था
दूर दो मोरनियाँ उचाट सी कुछ चुग रही थीं
मैं अगले बबूल तक पहुँच गया
जिसपर जंगल जलेबियों की बहार थी
फलियां अभी कच्ची और हरी थीं बचपन में हम
उचक - उचक कर तोड़ते और खाया करते थे
मैंने एक जंगल जलेबी तोड़कर चखी
भूखा तो था ही एक जादू की तरह बचपन लौट आया
मैं फलियाँ तोड़ता, चबाता और निगलता जाता था
गैंग अब धुँधला सा मुझसे कोई दो सौ गज़ दूर था
मुझ पर ही नज़र गड़ाए

मैं बड़ी काली चट्टान के पीछे से घूमकर
उसी रास्ते पर जा निकला
गैंग से सौ गज़ पीछे
छात्र - छात्राओं का एक झुण्ड चला आ रहा था
उनमें विजय भी था । मैंने कहा — विजय,
उस पुलिया के पास तीन लोग खड़े हैं, पूछो कौन हैं, यहां क्या कर रहे हैं
विजय ने कहा — कहाँ है कोई
मैं उसके साथ चला । वे वहाँ अब नहीं थे
एक ही पल में नदारद
जहाँ वे थे, एक गमछा गिरा था

एक अपराधविज्ञानी की तरह विजय ने उसे जाँचा
सफ़ेद और चौख़ानेदार था, बाद में
काला रंगाया गया
हल्दी और चाय, ख़ून और वीर्य —
ये निशान सूख गए, तो पूरी तरह मिटते नहीं
दब भले ही जाएँ
कपड़ा मोटा और मज़बूत है
गला घोंटने के काम आ सकता है
पसीना पोंछने के बजाय

विजय ने पूछा, वे तुम्हें जानते हैं ?
मैंने कहा, एक तरह से, हाँ,
और दूसरी तरह से ?
दूसरी तरह से पूछोगे तो
न वे बता पाएँगे, न मैं

(4-5 अप्रैल 2022)