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दर्प देख कर कंगूरे का / राजपाल सिंह गुलिया

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दर्प देख कर कंगूरे का,
नींव लगी है रोने।

परदों से भयभीत हुए अब,
घर के खुले दरीचे।
लगे फर्श का भाव मिटाने,
मिलकर फटे गलीचे।
नजर बट्टू भी सोचे लटका,
कैसे जादू टोने।

लगा टकटकी छत को तकती,
माँदी-सी दीवारें।
देख पाहुना नाक सिकोड़ें,
दर की बंदनवारें।
बंद हुई यह साँकल फिर भी,
देखे सपन सलोने।

अंधकार को ओढ़ खड़ा है,
घर का कोना-कोना।
कोई सुनता नहीं किसी की,
इसी बात का रोना।
प्रेमभाव भी लगा हुआ अब,
घर में नफरत बोने।