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अगर कभी दिन अच्छे आए / राजपाल सिंह गुलिया
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अगर कभी दिन अच्छे आए,
बात करेंगे मन की।
दिन भर कुंठा फिरे घूमती,
साथ लिए प्रत्याशा।
जाति-पाति के संग धर्म भी,
करता नित्य तमाशा।
दिन सनातनी रोंद रहे नित,
बातें अधुनातन की
बढ़ा रही हैं रक्तचाप को,
अब खबरें उन्मादी।
जीने का अभिशाप भोगती,
ये आधी आबादी।
आस्तीन में साँप करें अब,
बातें चंदन वन की।
वचन भंग हो फिरें निरादृत,
जाने कितने वादे।
राजभवन में बसी झूठ अब,
सच के पहन लबादे।
नुची हुई कलियाँ भी गाएँ,
महिमा अब उपवन की।