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हो निर्भया / ऋचा जैन
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जानती हो,
प्रताड़नाएँ कई तरह की होती हैं
कुछ परिभाषित, बहुत-सी अपरिभाषित
निश्चित ही चिरपरिचित
पर परिभाषा ज्ञात नहीं
डूबे हुए हैं शब्द मन-कुईयों में
सदियों से
बाल्टी से नहीं खींचे जाएँगे ये
ना रस्सी इतनी लम्बी है
ना गरारी में वह ताक़त
ये तलहटी में हैं
ख़ुद डुबकी लगानी होगी
अपनी चुल्लु में भर लाना होगा
और छिड़क देना होगा इस प्रदूषित हवा में
गंधोदक की तरह
तो पार्वती की पारो की पियु की
निश्छल कुलाँचें
दातों की चमक
सींच पाएँगी धरती का बिंधा सीना
सी पाएँगी छिन्न-भिन्न आकाश