गुइयाँ तैरती है / ऋचा जैन
जब पैदा हुई गुइयाँ
तो बुढ़िया सी
बुढ़िया-सी गुइयाँ बड़ी हुई, धीरे-धीरे, थोड़ी-थोड़ी
गुइयाँ चली
वो चले तो सब पीछे-पीछे
ज्यों हो मदारी की बंदरिया
गुइयाँ सोचे-विचारे पर बूझ ना पाये
गुइयाँ क्यों गुइयाँ-सी
फिर एक दिन गुइयाँ ने एक घंटी सुनी
सब चले, गुइयाँ भी बस्ता लेकर चल दी
सब अंदर और किवाड़ हो गए बंद
गुइयाँ रह गई बाहर, बार-बार
रो पड़ी, बुढ़िया-सी गुइयाँ मन मसोस रो पड़ी,
टूट गयी
फिर गुइयाँ ने सीटी सुनी
एक, दो, तीन ...
गुइयाँ भी झंडी लेके दौड़ी
गुइयाँ गिर पड़ी, बुढ़िया-सी गुइयाँ बड़े ज़ोरों से गिर पड़ी,
टूट गयी, फूट गयी
फिर सुनी उसने 'ट्रिन-ट्रिन'
गुइयाँ भी सीट पर चढ़ी
खूब ज़ोर लगाया, चका घुमाया, घुमाया
चका चला, चका चला, चका चढ़ गया गिट्टी में, चका फँस गया गिट्टी में
गुइयाँ लुढ़क गयी, बुढ़िया-सी गुइयाँ ज़ोर से लुढ़क गयी,
टूट गयी, फूट गयी
गुइयाँ फिर सुनती, फिर टूटती-फूटती
पर सुनती रही
गुइयाँ ने सुनना ना छोड़ा
फिर एक दिन उसने सुना 'छपाक'
गुइयाँ के मामा बड़े तैराक
लिवा गए नर्मदा और बाँध बाँह में दो फुग्गे
बोले, गुइयाँ, पैर चलाओ
गुइयाँ ने चलाए 'छप' 'छप' 'छप'
बोले, गुइयाँ, हाथ चलाओ
गुइयाँ ने चलाए 'छप' 'छप' 'छप'
पानी ने ना किवाड़ अड़काए
ना गड्ढे बनाए, ना गिट्टी छितराई
ना लोगों की आँखें, ना उनकी किरकिरी
ना बातें दरदरी
गुइयाँ पानी हो गई, पानी गुइयाँ
सिल गयी, खिल गयी
जुड़ गयी, गुइयाँ, जी गयी, गुइयाँ
अब उस पार जाती है
इस पार आती है
बुढ़िया-सी गुइयाँ नर्मदा तैर जाती है