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कवि-कथ्य / शील

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’लाल पंखों वाली चिड़िया’ में सन १९८० में प्रकाशित ’कर्मवाची शब्द हैं ये’ के बाद की कविताएँ संग्रहित हैं। नवें दशक के पूर्वार्द्ध में लिखी कविता ’लाल पंखों वाली चिड़िया’ भी संकलित है। अतः संग्रह का नाम इसी कविता के नाम पर ही रक्खा है।

नवें दशक की ये कविताएँ राजनैतिक तथा आर्थिक विषमता से उत्पन्न भयावह यथार्थ का दर्पण हैं, पर ये कविताएँ मात्र दर्पण ही नहीं, इनमें सामान्य जन की संघर्षकामी धड़कनें भी मौज़ूद हैं।

नवें दशक का यथार्थ, जिसमें सत्ता के लिए राजनैतिक भ्रष्टाचार का विकल्प ख़ुद राजनैतिक भ्रष्टाचार ही हो गया है। राजनीति जब इस स्तर की अनैतिकता में गहरे उतर जाती है, तो सामाजिक स्थिति विकृत हो जाती है। सामान्य जन में अन्धविश्वास घर करने लगता है और आदमी अशरीरी-धर्म और ईश्वर में सहारे खोजने में लग जाता है, जो कुण्ठित व अवसादजीवी वर्तमान समाज की बुद्धि पर तक्षक की तरह कुण्डली मारकर बैठ जाता है।

साँप बजाते बाँसुरी, मच्छर गाते गीत,
सत्ता की कुलटा हंसी, काले सच की जीत ।

यह स्थिति आकस्मिक नहीं, सन १९४७ में मिली समझौते की आज़ादी की देन है। फलतः आठवें दशक तक आते-आते शासन-सत्ता और व्यवस्था से भारतीय जन-मानस का मोहभंग हो चुका था ।

इन्हीं दिनों सम्पूर्ण विश्व में द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन यानी मार्क्सवाद को स्वयंभू मनीषियों द्वारा कालातीत कहा जाने लगा था। यह मानवता के लिए एक ख़तरनाक भ्रम है. इसलिए कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति विलासी वर्ग के हितों का पोषण करती है ।

मेरा निश्चित मत है कि
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