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प्रेम / गौरव गुप्ता

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प्रेम,
दरवाज़े के रास्ते नहीं लौटता
वह लौटता है
किसी याद के सहारे
धीमे-धीमे नंगे पाँव
जैसे बिल्ली घुस आती है
खिड़की से
या छत की सीढ़ियों से
अचानक
रसोई से बर्तन गिरने की आवाज़
या किसी काँच के टूट जाने पर
होता है उसकी मौजूदगी का एहसास
ठीक वैसे ही
प्रेम
लौटता है
धीमे से
कभी-कभी
खिड़की के पर्दे बदलते वक़्त
या कपड़ों का रंग चुनते वक़्त
या किसी शांत दुपहर
चाय सुड़कते वक़्त
या किसी गाने के बज जाने पर अचानक
कभी कभी वह लौटता है
किसी पसंदीदा फ़िल्म के बीच में
नायक और नायिका के मधुर संवाद बनकर
न दिन
न तारीख़
न कोई घोषणा
वह चुपके से आ बैठता है कंधे पर
किसी छुअन की तरह
सिहरन बन दौड़ जाता है पूरे शरीर में
वह किसी नीरस शाम के सबसे अकेले समय में
उपन्यास की पंक्तियों के बीच उँगली रख देता है
और ले जाता है अपने साथ
स्मृतियों की पगडंडी पर उल्टे पाँव
किसी की आवाज़ से टूटती है तंद्रा
और किताब औंधी पड़ी रहती है उतनी देर
बुकमार्क किए पन्नों के बल
प्रेम लौटता है
किसी जाने-पहचाने इत्र की ख़ुशबू में
किसी पुरानी फ़ाइल के बीच छुपे ख़त में
बरसात के मौसम में
खिड़की से आते तेज़ झोंकों के बीच
वह छू जाता है चेहरा
एक बूँद बनकर...
प्रेम लौटता है
बिस्तर की चादर बदलते वक़्त
आसमानी या स्याह रंगों के बीच के चुनाव में
जब उलझे थे दो लोग पूरी रात
प्रेम लौटता है
किसी रोज़
उसी मधुर रात की याद बनकर