भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम मजदूर होते हैं / भारतेन्दु मिश्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:46, 2 मई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= भारतेन्दु मिश्र |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोटियों सी गोल है दुनिया
और हम मज़दूर होते हैं
देह अपनी बाँटते हैं हम
और थककर चूर होते हैं ।

पढ़ न पाए हम गरीबी में
बढ़ न पाए बदनसीबी में
शोषकों की दृष्टि में तो हम
नाक का नासूर होते हैं ।

गालियाँ भी लोग देते हैं
हाथ, बस, हम जोड़ लेते हैं
क्या पता तुमको कि हम भी
किस कदर मजबूर होते हैं ।

जब मशीनों पर उतरते हैं
काम जोखिम भरे करते हैं
मौत की ही चीख सुनते हम
ज़िन्दगी से दूर होते हैं ।

(पारो-18/6/1989)