भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक आत्मपरक ग़ज़ल / रामकुमार कृषक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:36, 4 मई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकुमार कृषक |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूछो न हाल, थे नहीं इस हाल में कभी,
रहते थे रोज़ उम्र के ननिहाल में कभी ।
 
कहने को नीमगोत* हैं कड़वे नहीं मगर,
पेड़ों पे हम पके न पके पाल में कभी ।

गजरों में गुंथे हैं तो कभी देव - सिर चढ़े,
झड़कर ही बचेंगे जो बचे डाल में कभी ।
 
यूँ तो समूचा मुल्क़ दुआओं का मुंतज़िर,
गुजरात - सी गुज़रे नहीं बंगाल में कभी ।

हारे नहीं हैं हौसला जीते न हों भले,
तूफाँ में हम घिरे हों या भूचाल में कभी ।
 



  • नीमखेड़िया या नीमगोत । मेरे गोत्र का नाम।