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चिट्ठियाँ / कमल जीत चौधरी
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फ़ोन पर लिखीं चिट्ठियाँ
फ़ोन पर बाँचीं चिट्ठियाँ
फ़ोन पर पढ़ीं चिट्ठियाँ
अलमारी खोलकर देखा एक दिन
बस, कोरा और कोहरा था ...
डायल किया फिर
फिर सोची चिट्ठियाँ
मगर कुछ नम्बर
और कुछ आदमी
बदल गए थे
कबूतर मर गए थे ।