ठहरे पलों के प्रतिबिंब / दीपा मिश्रा
इन दिनों बहुत कुछ
ठहर सा गया है
जैसे कोई साफ पानी का
तालाब हो
हाँ, तालाब ही कहूंगी
या कहिए पोखर
जिसका पानी पूरी तरह स्थिर है
और मैं उसमें झांक रही हूं
खुद को शायद ढूंढती हुई
अचानक उसमें मुझे
कुछ नजर आता है
अरे! ये तो मेरे ही
जीवन के बीते पल हैं
तो क्या यह उनका प्रतिबिंब है?
फिर मैं कहां हूं ?
एक बार फिर उनमें
खुद को तलाशना शुरू करती हूं
पर वे प्रतिबिंब तो अब
चलचित्र की भांति चलने लगे हैं
कभी मां के आंचल से
लिपटा पाती हूं खुद को
तो कभी देखती हूं
आंगन में धूप सेंकती हुई
कभी दुछत्ती पर किताबें पढ़ती
तो कभी दादी से
लगे हाथों क्यों ना
उन्हें फिर से समेट लूँ?
शाम घिरने से पहले एक बार
उन्हें फिर से निहार लूँ
देखा तो पानी फिर
ठहर चुका होता है और
मैं उनमें फिर से खोए
प्रतिबिंब खोजने लग जाती हूं