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माँ के लिए एक कविता / रॉबिन ङाणोम / अनिल जनविजय

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पलेम अपोक्पी, मेरी माँ हैं, जिन्होंने मुझे जन्म दिया,
और मैं एक ऐसा आदमी हूँ, जिसे दस साल पहले तक
घर छोड़कर कहीं और जाना ज़रा भी नहीं भाता था ।
पर अब ये पहाड़ियाँ मुझपर उग आई हैं ।

माँ ! माँ !
मैं अब भी तुम्हारा वही बेहद शर्मीला बेटा हूँ
जो बेहद पेटू था,
तुम्हारा कोठार ख़ाली करने के बाद
जिसके कई दाँत गिर गए थे ।

मैं अब भी स्वप्निल आँखों वाला तुम्हारा वही बच्चा हूँ
जिसने अपने स्कूली दिनों में,
रोज़ ही किसी न किसी से कोई नया रोमांस करते हुए
तुम्हारे जीवन में मुश्किलें पैदा की थीं
जो निक्कर पहनता था, लेकिन इतना मनचला था
कि हर मनपसन्द लड़की से रोमांस शुरू कर देता था।

माँ !
तुमने अपने बच्चों को यह समझाया - बताया था
कि समय और पैसे पेड़ों पर नहीं उगते,
लेकिन मैं कभी भी उनके साथ रहना नहीं सीख पाया ।
माँ ! ऐसा नहीं है कि मैं भूल गया हूँ कि
तुम मेरे लिए क्या मायने रखती हो
हालाँकि मैं सब कुछ छोड़कर चला आया था
और दूसरों की स्मृति में ख़ुद को
बेहद बौना कर लिया था मैंने ।
 
मैं जानता हूँ कि तुम भी दूसरी माँओं की तरह
दिन-रात हाड़तोड़ काम करती थीं अपनी आज़ाद बहुओं,
उम्रदराज़ पति और अविवाहित पुत्रों के लिए ।
हमारे लिए हमेशा चिन्तित रहा करती थीं
तुम्हारे होठों पर कभी एक मुस्कान तक नहीं आई,
अब तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ छा गई हैं
और तुम्हारे बालों में बर्फ़ सी सफ़ेदी झाँकने लगी है।

हर रोज़ की तरह तुम आज भी उठी होंगी
सुबह-सवेरे, भोर में, तड़के,
गिरजे की घण्टियाँ बजने से पहले ही
तुमने सारा घर साफ़ किया होगा, फिर तुम नहाई होंगी
और घर में शेष बचे सभी लोगों के लिए खाना बनाया होगा ।
हर शाम मैं तुम्हें देखता हूँ
तुम लौटती हो बाज़ार से,
सिर पर भारी टोकरियों का बोझ लेकर ।
  
 माँ ! मेरे मन में सवाल उठता है —
क्या अब तुम्हें हमेशा हमेशा के लिए
सख़्त मेहनत से छुटकारा नहीं पा लेना चाहिए ?
  
मैं उदास हूँ, माँ पलेम !
मैं तुमसे विरासत में कुछ ले नहीं पाया
न स्थिर जीवन जीने का तुम्हारा तरीका और न खाना पकाने का तुम्हारा कौशल ।
मुझे माफ़ कर दो, माँ !
मैं तुम्हारे वे सपने पूरे नहीं कर पाया
कि तुम बिताना चाहती थीं अपने बचे हुए दिन शान्ति से।

मैं एक छोटा आदमी निकला
जिसके सपने छोटे - छोटे हैं,
और जो अपने उन छोटे - छोटे सपनों के साथ
अपना छोटा सा जीवन जी रहा है ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय

लीजिए, अब यही कविता अँग्रेज़ी में पढ़िए
           Robin S Ngangom
           A Poem for Mother

Palem Apokpi, mother who gave birth to me,
to be a man how I hated leaving home
ten years ago. Now these hills
have grown on me.
But I’m still your painfully shy son
with a ravenous appetite,
the boy who lost many teeth after
emptying your larder. And
I am also your dreamy-eyed lad
who gave you difficult times
during his schooldays, romancing
every girl he wanted, even
when he still wore half-pants.
  
You told your children that
money and time do not grow on trees, and
I could never learn to keep up with them.
It isn’t that I’ve forgotten
what you’ve come to mean to me
though I abandoned much and left
so little of myself for others
to remember me.
 
I know how you work your fingers to the bone
as all mothers do, for unmarried sons,
ageing husband and liberated daughters-in-law.
Worried about us, for a long time
your lips couldn’t burgeon in a smile,
lines have furrowed your face and
first signs of snow are on your hair.
  
Today, as on every day you must have risen
with temple bells before cockcrow, swept
the floors and after the sacred bath
cooked for the remainder of us. I can see you
returning every dusk from the bazaar,
your head laden with baskets.
  
Must you end toiling forever?
  
I’m sorry Palem.
I’ve inherited nothing
of your stable ways or culinary skills.
Forgive me, for all your dreams
of peace during your remnant days
I turned out to be a small man
with small dreams, living a small life.

Robin S Ngangom