उठाओ क़लम / शील
उठाओ क़लम, सर क़लम हो रहे हैं ।
धुआँधार ज़ुल्म-ओ-सितम हो रहे हैं ।
लिखो राष्ट्र क्षमता की आँखें भरीं क्यों ?
कलुष की कथा, क़त्ल-ग़ारतगरी क्यों ?
मज़हबी दरिन्दों को हथियार देकर,
गुनहगार पूँजी की बाज़ीगरी क्यों ?
समय खो न जाए, गला भर न आए,
जगाओ, जो दिन में पड़े सो रहे हैं ।
उठाओ क़लम, सर क़लम हो रहे हैं ।
ज़रा देखिए, इनके आधार क्या हैं,
मुजरिम सियासत के व्यापार क्या हैं ?
बदलनी है धरती से धन की प्रणाली,
हमारे — तुम्हारे सरोकार क्या हैं ?
बोते हैं हम-तुम फ़सल ज़िन्दगी की,
ये — रोटी के दुश्मन धरम बो रहे हैं ।
उठाओ क़लम, सर क़लम हो रहे हैं ।
क़लम के लिए देश-परदेश क्या है,
क़लम का हमेशा से सन्देश क्या है ?
गिरों को उठाओ, ज़माने को बदलो,
अदब की हक़ीक़त, पशोपेश क्या है ?
क़लम के लिए भ्रम की ज़ंजीर तोड़ो ।
ज़माने के आखर गरम हो रहे हैं ।
उठाओ क़लम, सर क़लम हो रहे हैं ।