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मुझे सख़्त ज़ुकाम है / फ़ेर्नान्दो पेस्सोआ / असद ज़ैदी

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मुझे सख़्त ज़ुकाम है
और सभी को पता है कैसे सख़्त ज़ुकाम
सृष्टि की व्यवस्था को बदल देता है,
हमारी ज़िन्दगी को अज़ाब बना देता है,
और हमारा अध्यात्म भी छींकने लगता है ।
मैंने अपना सारा दिन
नाक सिनकते हुए गुज़ार दिया ।
सर मेरा भारी है।
एक औसत कवि का ऐसा बुरा हाल !
आज के दिन हूँ मैं सचमुच एक छुटभैया कवि ।
पुराने दिनों में जो मैं था अब कल्पनातीत है; सब ख़त्म ।
अलविदा, परियों की रानी, अलविदा !
तुम्हारे पंख थे धूप के बने धूप से रंगे हुए,
और मैं हूँ ज़मीन पर डोलता हुआ ।
जब तक जाकर अपने बिस्तर पर न पड़ जाऊँ
मेरी तबीयत ठीक नहीं होगी ।
मेरी तबीयत कभी ठीक नहीं रही
ब्रह्माण्ड पर लेटे बग़ैर ।
मुझे ज़रा माफ़ करना... कैसा ज़ालिम ज़ुकाम है जिस्मानी !
मुझे ज़रूरत है सच्चाई की और एस्प्रिन की ।

(14 मार्च 1931)
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नोट : पैसोआ ने यह कविता आलवरो दे काम्पोस के छद्म नाम से लिखी थी।
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पुर्तगाली से रिचर्ड ज़ेनिथ के अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : असद ज़ैदी