भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भोर बेला / जय गोस्वामी / जयश्री पुरवार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:16, 21 जून 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जय गोस्वामी |अनुवादक=जयश्री पुरव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
भोर की बेला में मछुआरा
सागर में गया
डावाँडोल नाव से जाल फेंका
पूरी शक्ति लगाकर दोनो हाथों से
जाल खींचकर उठाकर देखा
कोई बड़ी मछली नहीं –
सूर्य, तुम निकल आए आकाश में !
आलोक फैल गया हवा में
धूल ने भी सहमति दे दी
पथ को भी कोई आपत्ति नहीं
और वृक्ष ?
जानता हूँ, वह भी राज़ी हो जाएगा ।
अगर मैं घर के अभावों में भी
एक़बार हिम्मत करके, उस,
उस एक शख़्स को लेकर
वृक्ष के नीचे,
धूल भरे पथ पर
दिनभर छुपकर सोता रहूँ !
जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित