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हमीदा / जय गोस्वामी / जयश्री पुरवार

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उसका नाम है हमीदा । बाज़ार का झोला ढो देती है ।
कहने से घर तक भी पहुँचा देती है ।
कोई उसे नाम से नहीं बुलाता ।
सब्ज़ीवाले, मछलीवाले कहते हैं :
‘उस काली लड़की को दीजिए, वह पहुँचा देगी ।’

हमारी गली में काबेरी के पीछे - पीछे
छोटे - बड़े, दो थैले हाथ में लेकर आ रही है हमीदा ....

छोटे थैले में है चाँद । बड़ेवाले में है घूमती हुई पृथ्वी ।
बड़ेवाले में नदी है, पेड़ है, समुद्र है, पर्वत, मरुस्थल, बस्ती और नगर हैं,
करोड़ों चींटियाँ हैं या फिर आदमी ?
माचिस की डिब्बियों की तरह सैकड़ों मकान
गेंद के साथ ही घूम रहे हैं ।
थैला फाड़ बाहर आकर
चाँद चमक रहा है आसमान में ।

महाशून्य को रौंदते हुए
वह काली लड़की चलती जा रही है ....
देखो - देखो ! उसके पैरों के नीचे
लक्ष - लक्ष आलोकों का नर्तन !

जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित