भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाने कितनी पीड़ाएं हैं / अर्चना अर्चन

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:37, 21 जून 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना अर्चन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने कितनी पीड़ाएँ हैं
अनदेखी सी, अनजानी सी
अपनों की बेईमानी सी
दो आखर में सिमटी जैसे
लंबी एक कहानी सी
जाने कितनी पीड़ाएँ हैं

मन के भीतर झांक सकें ना
देखें सब, पर भांप सकें ना
फीकी मुस्कानों में झलके
ज़ख्मों की निशानी सी
जाने कितनी पीड़ाएँ हैं

कंधों पर उम्मीदें भारी
चिंतायें कितनी सारी
अनसुलङो प्रश्नों की जैसे
गठरी एक पुरानी सी
जाने कितनी पीड़ाएँ हैं

प्रेम अधीर करे हर रंग में
विरह मिले, चाहे श्याम हों संग में
राधा भी व्याकुल-सी फिरती
मीरा भी दीवानी सी
जाने कितनी पीड़ाएँ हैं।