भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढूंढ़ के ला दो / अर्चना अर्चन
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:38, 21 जून 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना अर्चन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कहीं रख के भूल गई हूँ खुद को
ढूँढ़ के ला दो।
सुध-बुध खो बैठी हूँ अपनी,
याद दिला दो
चांद नहीं सोने देता अब
पलभर मुझको रातों में
भर आती हैं ओस की बूंदें
चांदनी बनके आंखों में
कब से पलकें नींद से बोङिाल
लोरी गा दो
कहीं रख के भूल गई हूँ खुद को
ढूँढ़ के ला दो
शीशे जैसा चम-चम चमके
उजियारा-सा आठों पहर
ऐसी आदत थी न कभी भी
कैसे बूझूं शाम-ओ-सहर
जाए सहा न इतना उजाला
सांझ बुझा दो
कहीं रख के भूल गई हूँ खुद को
ढूँढ़ के ला दो।
मिलना तो मुमकिन ही नहीं होगा
अपनी तकदीरों का
बीच हमारे फिर भी कोई
रिश्ता तो है लकीरों का
हाथों में ये हाथ रहे
बस इतनी दुआ दो
कहीं रख के भूल गई हूँ खुद को
ढूँढ के ला दो?