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बंदिनी अप्सरा / रणजीत

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अपनी खिड़की की सीखचों के उस तरफ़ से
देखती हो तुम भटकती-सी नज़र से
राज-पथ पर
सात समंदर पार जैसे
किसी अकेले द्वीप-दुर्ग में
कोई अप्सरा
इंतज़ार में बिछी हुई नज़रों से देख रही हो
सागर की चौड़ी छाती पर बढ़ते आते
नीलम की आँखों वाले उस राज-पुत्र को
जिसके ऊँचे मस्तूलों पर
इन्क़लाब की विजय-पताका फहराती हो।

औ' तुम्हारे प्रणय-गीतों के रुँधे से स्वर
तुम्हारे घर की दीवारों से टकरा कर
टूट-टूट जाते हैं।
क्यों नहीं पर देखती हो तुम मुझे
जो तुम्हारे ही लिए प्रतिदिन
तुम्हारे सामने की सड़क पर से निकल जाता हूँ
इस प्रतीक्षा में कि तुम कोई संकेत ही कर दो
और तुम्हें
शैतान-समाज के घर-किले की सीखचों से मुक्त कर दूँ
घरवाले-द्वारपालों की आँखों में धूल झोंक
पत्रों के प्रहारों से सेंधकर दीवार कारागार की,
औ' तुम्हारे प्रणय-गीतों के भटकते स्वर
तुम्हारी दुर्ग-प्राचीरों से टकरा कर
टूट ना पाएँ
प्रतिध्वनित हों फैल जाएँ
अन्य काराओं की दीवारों से टकराएँ
दूसरी तुम-सी अभागिन अप्सराओं के भी दिलों में
द्रोह का तूफान लाएँ
ताकि वे भी अपने भटकते मुक्ति-दूतों को पहचान पाएँ
बस एक बार मेरी ओर देख भर लो
संकेत भर कर दो
मैं तुम्हारी मुक्ति का पैग़ाम लेकर आ गया हूँ!